सब कुछ खुला पड़ा है दुनिया के सामने।
अब ना रहा ये वो सोने की चिडियां,
आयी थी जिसे लुटने अंग्रेज टुकडियां।
हमने तो नवाजा था मेहमा समझा कर,
क्या पता था कर जायेगे वो हमे ही बेघर।
समझ न पाए हम वो अंग्रेजी चाले,
इस देश के..................
गाँधी हुए नेहरू हुए और तिलक भी,
सुखदेव बोस राजगुरु और भगत सिंह।
सबने लगा दी बाजी अपने प्राण की,
और दे गये हमे ये जश्ने आजादी।
लुटा गये ख़ुद को देश के नाम पे,
इस देश के.......................
पर हुए क्या पुरे वो उनके सपने,
जो देखा था कभी अपने वीरो ने मिल के।
था भूख और गरीबी को जड़ से मिटाना,
पर मिट ना सका वो बन गया फ़साना।
आज़ादी मिली पर हम ना आजाद हो सके,
इस देश के.................
घूस चोरी भर्ष्टाचार फैला इस कदर,
हो गया हर मानव मानव का दुश्मन।
घर में भी लोग रहते है अब सहमे हुए से,
ना जाने कब कहाँ से कोई रंगदार आ घुसे।
पहले तो कोई और अब अपने ही लुटते,
इस देश के...................
2 comments:
सुन्दर। शुभकामनाएँ।
आपने रचना के माध्यम से बहुत कड़वी सच्चाई सामने रखी है !
अफसोस इस बात का है कि पहले जो लोग थे वो बाहर के थे .. पराये थे !
अब तो यूँ लगता है मानो गोरे अंग्रेज चले गए और उनकी जगह काले अंग्रेज आ गए !
सिर्फ चेहरे बदले ... चाल और चरित्र नहीं !
बहुत प्रेरक कविता लिखी है आपने जो दिल को कचोटती है !
स्नेह व आशीष !
ढेरों शुभकामनाएं !
आज की आवाज
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