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Wednesday, March 28, 2012

वक्त के पन्ने रेत से...



वक्त के पन्ने रेत से, मेरे हाथ से फिसलते गये
जहाँ मौका मिला खुशियाँ थक कर बैठ गयी
गम मेरे साथ, उम्र भर चलते गये |
यादें सिर्फ ताउम्र साथ रहीं मेरे
लोग बिछड़ते गयें ... लोग मिलतें गये |
वक्त के पन्ने रेत से, मेरे हाथ से फिसलते गये |

मुसाफिर से मिले, मुझसे "अपने" भी यहाँ
खुशियों में लगाया गले .
दुःख में किनारा कर, निकलते गये |
जो शख्स मुस्करा कर मिला, हमने उस को "हक" दिया
लोग धोखा देते गये , हम गिर गिर कर संभलते गये
वक्त के पन्ने रेत से, मेरे हाथ से फिसलते गये |

मेरे ख्वाबों की कब्रों पर , उन्होंने अपने मकान बना लिए
वो भी गमों में पलते गयें , हम भी खुशियों से हाथ मलते गये
वक्त के पन्ने रेत से, मेरे हाथ से फिसलते गये
जहाँ मौका मिला खुशियाँ थक कर बैठ गयी
गम मेरे साथ, उम्र भर चलते गये |

Friday, March 9, 2012

दीवारें


जानते हो ?
तुमसे ज्यादा तो मुझे, इस घर की दीवारें जानती है ....
जब तुम सुनते नहीं मेरी , मैं सब इन को सुना देती हूँ
जब तुम फाइलों में उलझे,मुझे भूल जाते हो , मैं इनसे रिश्तें बना लेती हूँ |

तुम जानते हो ?
ये मुझे सहारा देती है ...
जब बातों के भंवर में होती हूँ मैं , ये मुझे किनारा देती है |
कभी जब थक जाती हूँ खुद से , ये मुझे फिर से जीने का इशारा देती है ...
मैं इन्हें अपनी सब परेशानियाँ सुना देती हूँ ...
जब तुम फाइलों में उलझे,मुझे भूल जाते हो , मैं इनसे रिश्तें बना लेती हूँ |

ये जो दीवार में बनी, ताकें है ..
इनमें मैंने अपने गम छुपा रखें है ,
कितने ही आसूं वाले दिन, इन में दबा रखें है |
ये दीवारें मेरी सखियाँ है , इनसे में भारी मन को बहला लेती हूँ
जब तुम फाइलों में उलझे,मुझे भूल जाते हो , मैं इनसे रिश्तें बना लेती हूँ |
देखा , ये दीवारें कितनी अपनी है ....

Thursday, March 1, 2012

स्त्री


क़ानून को हाथ में लिए खड़ी है ,
आँखों पर काली पट्टी चडी है
हर पुरुष उसके आगे नतमस्तक है

वो गंगा है , यमुना है , सरस्वती है
सब का पाप धोने के लिए बहती है
हर पुरुष उनके आगे नतमस्तक है

वो वैष्णो देवी मै है , वो काली है , अम्बे है,
वो शेरो वाली है , वो माँ संतोषी है
हर पुरुष उनके आगे नतमस्तक है

वो ही तो है , जिस के आँचल के नीर से पल कर "जग" बड़ा हुआ है
आज हर पुरुष अपने पैरों पर खड़ा हुआ है
हर पुरुष उनके आगे भी नतमस्तक है |

फिर जब तुम स्त्री की इतनी इज्जत करते हो
उसे मंदिर में पूजते हो , उसके पानी में पाप धोते हो
उसके आँचल में पल कर बड़े होते हो ...|
फिर क्यूँ ... सरे आम उसी स्त्री को नोचतें हो ?
क्यूँ उसके जिस्म की इतनी भूख है तुम्हे ?
क्यूँ जर्रा जर्रा कर देना चाहते हो "स्त्रीत्व" को तुम ?
क्यूँ "हर दिन" , "हर अखबार" , का "हर पन्ना"
स्त्री के आसूं से सजा होता है ?
क्यूँ स्त्री के लिए मंदिर के बाहर होना
इतनी बड़ी "सजा" होता है ?
आखिर कब तक चलेगी ये दानवता
आखिर कब तक शर्मसार होती रहेगी मानवता ???
जवाब मत दीजिये , वरन अपने अंदर जवाब खोजिये :)

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