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Monday, April 30, 2012

मजदूर या मजबूर दिवस



सर पर तगारी, या हाथ में फावड़ा 
हमेशा वो दिखा मुझे , धुप से लड़ता हुआ 
अपने से , चौगुना वजन लिए 
गर्म सडक पर नंगे पैर , सरपट बढ़ता हुआ | 
 
अपने पेट की अग्न को , शांत करने खातिर 
खुद से हमेशा लड़ता हुआ ..
वातानुकूलित भवनों में रहने वाले, लोकतंत्र से 
थोडा सहम थोडा डरता हुआ .. :(
इस महंगाई के महादानव से 
तिल तिल कर मरता हुआ |
हमेशा दिखा मुझे,  वो मजदुर , "मजबूर" 
मौत में जिन्दगी भरता हुआ ||

चाहें लग जाए सावन या चल रहा हो वसंत
पर हमेशा पतझड़ की तरह झरता हुआ |
मजदुर दिवस के दिन भी 
मजदूरी करता हुआ || 
मजदुर दिवस के दिन भी 
मजदूरी करता हुआ || 
 

Saturday, April 28, 2012

क्या कभी जीया है, ऐसा जीवन ?



क्या कभी किसी की आवाज में, नमी महसूस की है ? 
क्या तुमने जिन्दगी में , जिन्दगी की कमी महसूस की है ?
क्या महसूस हुआ है तुम्हे, किसी गैर का दर्द 
क्या बिताई है खुले आकाश में ,एक रात सर्द ?
क्या किसी के सपनों को, अपनी जमीं दी है ?
क्या किसी की आँखों को, खुशियों की नमी दी है ?
क्या किसी के पैर के छालों पर, मरहम लगाईं  है 
क्या किसी तन्हा को दी, प्यार की दवाई है ?
खुद रहतें हुए अंधेरों में , क्या किसी को दिए उजालें है ?
किसी और के गम क्या, कभी खुद ने संभालें है ?
क्या किसी पैर की , काटों की, चुभन महसूस की है ?
क्या खुले में तपते सूरज की, अग्न महसूस की है ?

"गर ऐसा कुछ महसूस नहीं किया है 
तो प्यारे,
अब तक तुने जीवन ठीक से नहीं जीया है "|| 
 
केलेंडर के बदलते पन्नों के माफिक, जिन्दगी बिताई है 
तुने बस जिन्दा रहने की , एक रस्म निभाई है ||

Saturday, April 21, 2012

अर्जियां मेरी ..

 लिखी सौं अर्जियां.. , 
उसके दर तक , 
एक भी , भेजी  जा ना सकी |
मुरादें मेरी ...
उसके दर से ..
पूरी हो कर , आ ना सकी |

उसे यकीन था ...वो मुझे ...इतना तोड़ देगा 
की मैं हाथ फैलाये , उसके  दर तक चला आऊंगा ...!
पर हमसे हमारी खुशियाँ , कभी मांगी ना जा सकी |
वो पत्थर का ही  था , यह भी साबित हुआ 
दिल की बातें ...उसके कानों तक जा ना सकी ||
मुरादें मेरी ...उसके दर से ...पूरी हो कर आ  ना सकी | 

वो लेता रहा सब्र का  इम्तेहां मेरे ...सरे आम 
पर हमसे जिन्दगी से चीटिंग की ना जा सकी 
ग़मों में भी हम , खुल के  मुस्कराते रहे 
आसुओं की महफ़िल हमें कभी आजमा ना सकी |
 
लिखी सौं अर्जियां.. ,
 उसके दर तक ....
एक भी , भेजी  जा ना सकी |

Monday, April 2, 2012

बचपन बचाओ :)



बचपन कैद रहिसों के मकानों में
रसोई में झूठे बर्तनों से ,खिलोने खेल रहें है
वो  गरीबी का भारी बोझ...
अपने कोमल कन्धों पर झेल रहें है |

लोग  देश के भविष्य को , कूड़ें में फेक रहें है |
सब मूक बन कर , नेहरु के गुलाब को
टुकड़ा टुकड़ा, बिखरते देख रहे है |
समाज चुप है , चुप सरकारें भी है
सब बचपन की लाश पर, अपनी रोटियां सेक रहें है |

बचपन यदि सही पल्लवित नहीं हुआ
तो एक सभ्य समाज , कैसे बना पाओगे ?
बचपन यदि बिगड़ा , अपना घर कैसे बचाओगे ?
समय है बचपन को सँभालने का ,
इस गुलाब को... महकती बगिया में ढालने का ||
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