Followers

Friday, September 30, 2011

नारी की, नवरात्रा कब आएगी...


नौं दिन कन्याओं को, घर खाना खाने बुलातें है
और अध्जन्मी कन्या को, हम कूड़े में फेक आते है ||

एक नारी को ही हम, अम्बे, काली,दुर्गा, माता कहतें है
और बीच चौराहे, नारी की इज्जत लूट लेतें है ||

नौ दिन कन्याओं, की पूजा करतें है
पर उसे नौ महीने, गर्भ में नहीं सह्तें है
माता का मंदिर बनाते है,उसके दर्शन करने, पैदल चल कर जातें है
पर एक कन्या को , जन्म देने से घबरातें है ||

आप नौं दिन में पूजा कर के, किस माता को मना लोगे ?
गर कन्या नहीं रही धरती पर , तो क्या पुरूषों से काम चला लोगे ?
कन्याओं को मार के गर्भ में , कैसे माँ का आशीर्वाद पा लोगे ?
पाखंड की धार्मिक क्रियाओं से, कब तक समाज बचा लोगे ?

ना जाने "नारी की नवरात्रा" कब आएगी...
कब मंदिरों के बाहर, घर घर में नारी पूजी जायेगी ?
व्रत, उपवास, पूजा कर, उपरवाले को भरमातें है |
ऐसे रीती रिवाज़ और बनावटी समाज से , हम कतराते है
ऐसे ढोंगी समाज सुधारकों को, हम दूर से ही शीश नवातें है ||

नौं दिन कन्याओं को, घर खाना खाने बुलातें है
और अध्जन्मी कन्या को, हम कूड़े में फेक आते है ||

Friday, September 23, 2011

तेरे ग़मों में, डूब के लिखता हूँ...


मैं जब भी तेरे ग़मों में, डूब के लिखता हूँ
लोग कहते है ....वाह... क्या खूब लिखता हूँ ||
तेरे आंसुओं से, शब्दों को सींचा है
तेरे दर्द को दिल से समझा है
हर शब्द बयाँ करते है, खालिस सच्चाई
कोई साबित तो करें, की झूट लिखता हूँ !
मैं जब भी तेरे ग़मों में, डूब के लिखता हूँ
लोग कहते है ....वाह क्या खूब लिखता हूँ ||

मैं ग़मों का व्यापारी नहीं हूँ,
दांव लगाऊं तेरे दर्द का , कोई जुआँरी नहीं हूँ
मैं रोती रातों को "अमावस",खुशियों की कमी को "भूख" लिखता हूँ
अकेलेपन को "अँधेरा" , भीगी पलकों को, "गीली दूब" लिखता हूँ
किसी को अच्छा लगे या बुरा , मैं सिर्फ दो टूक लिखता हूँ
मैं जब भी तेरे ग़मों में, डूब के लिखता हूँ
लोग कहते है ....वाह क्या खूब लिखता हूँ ||

मेरी कविता की किताब के एक एक पन्ने
तुझे तेरी जिन्दगी का हिसाब देंगे ...
मेरे छंद देंगे, तुझे होंसला जीने का
शब्द तेरी आँखों पे, हसीं ख्वाब देंगे .. ||

तुम देती हो मेरे शब्दों को जीवन
मैं तेरे नाम अपना, "वजूद" लिखता हूँ
मैं जब भी तेरे ग़मों में, डूब के लिखता हूँ
लोग कहते है ....वाह क्या खूब लिखता हूँ ||

Saturday, September 17, 2011

नये रंग ...


मैंने आज दीवारों को रंगा है
इस उम्मीद से, की ये नये रंग
कुछ मेरी जिन्दगी, भी बदल देंगे ...
कुछ खुशियाँ जीवन में भर देंगे ..
इसीलिए...मैंने ....
थोडा नीला रंग चुना है ...
ताकि अपने अरमानों को, पंख लगा के उड़ लूँ
और जब चाहूँ, आसमाँ छू लूँ ...||

थोडा मैंने हरा भी चुना है
ताकि हरियाली , खुशियाली रहें
हमारे घर - आँगन में ...॥

कुछ लाल रंगा है
ताकि ढलते सूरज की, लालिमा को महसूस कर सकूँ...
थोडा सा हिस्सा गुलाबी रखा है
ताकि कुछ गुलाबी यादें, तेरे - मेरे जीवन का हिस्सा बन सकें ||
एक दिवार सफ़ेद छोड़ दी है ...
इस उम्मीद में की ,
उसे अच्छी यादों से सजाउंगी...||

मुझे पता है , तुम अब भी नाराज हो...
क्यूंकि मैंने, तुम्हरा पसंददीदा रंग, "काला" नहीं लगाया ...
पर ये काला रंग, कालेपानी की सजा सा लगता है
मै ऊब चुकी हूँ उससे,
दम घुटता है मेरा , जब अकेली होती हूँ...
काला रंग, अँधेरा ला देता है जीवन में ...
और मुझे अब सिर्फ उजाले की तलाश है...

सुनो ना ....
इस बार तुम भी इन नये रंगों से खेलो
अँधेरे को छोड़ कर उजाले से मिलो ... !!

Wednesday, September 7, 2011

आज मेरा गम, तेरे गम सा क्यूँ है


आज मेरा गम, तेरे गम सा क्यूँ है ?
हम सब सुरक्षित है, यह वहम सा क्यूँ है ?
जख्म बन चुका है नासूर
पर वो ही पुराना मरहम सा क्यूँ है ?

बेकसूरों को मुआवजा , जान कि कीमत ?
और खुनी को बिरयानी , दामाद सी आवभगत
इस देश में ऐसा, नियम सा क्यूँ है ?
आज मेरा गम, तेरे गम सा क्यूँ है ?

गांधी भी चुप हैं , और भगतसिंह भी मौन है
सब जानते है पता कातिल का ....
पर सब "बन" के पूछ रहें है, कि अपराधी कौन है ?
आँख बंद करने से मौत टल जायेगी, तुझे ऐसा भ्रम सा क्यूँ है ?
आज मेरा गम, तेरे गम सा क्यूँ है ?

इन सफेदपोशों को, आईना भी, चेहरा कैसे दिखा देता है ?
बेशर्मी इतनी लहू में इनकें , लाशों पे राजनीति करना सीखा देता है ||
मारें तुने बेगुनाह हजारों , कभी कोर्ट में कभी फोर्ट में , कभी रोड पे कभी मोड़ पे
पर यह तो बता , इन सफेदपोश गद्दारों पे तेरा रहम सा क्यूँ है ?
आज मेरा गम, तेरे गम सा क्यूँ है ?
हम सब सुरक्षित है, यह वहम सा क्यूँ है ?
Related Posts with Thumbnails