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Wednesday, June 1, 2011
कुछ सच ...
हमें हर मुस्कान के बदले अपना एक ख्वाब देना पड़ता है
न जाने क्यूँ हमें अपने किए का हिसाब देना पड़ता है
वो तो लूट के ले गया सब कुछ उजाले में
हमे तो अँधेरे का भी जवाब देना पड़ता है ||
जो चलना सीखे थे हमारी ऊँगली पकड़ के कभी,
उन्हें अब हमारा, धीरे चलना अखरता है .....
वो चल पड़ा है खरीदने खुशियाँ कागज़ के चंद टुकड़ों से ,
सच भी तो ये है ,सही भाव पे यहाँ हर रिश्ता बिकता है ||
जो चिराग किए थे हमने रोशन कभी , अँधेरा मिटाने को ...
उसकी लौं आज काम आ रही घर जलाने को ||
किसे फ़िक्र पड़ी है अब किसी के अरमानों कि ?
मेरा दर्द तेरी आँखों से , बात हो गयी है वो गुजरे जमाने कि ||
अब तो दिल टूटता है तभी दिल लिखता है
हर रिश्ता पूरा, केवल टूटे आईने में दीखता है
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विजय पाटनी
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9 comments:
सुन्दर भावपूर्ण रचना।
Bahur sunder , gahrayi se likhi gayi kavita ...i guess abt parents to their kids...
उसने उजाले में लूटा और हमे अंधेरे मे जवाब देना पडता है बहुत शानदार। अरे यह भी बहुत गहरी बात कि जिनकी उंगली पकड कर चलना सीखे उनका धीरे चलना अखर रहा है सही बात है बुजुर्गो की बेचारों की यही हालत होगई है। जब दिल टूटता है तभी लिखने के विचार पैदा होते है। बहुत शानदार रचना
जिनकी उंगली पकड कर चलना सीखे उनका धीरे चलना अखर रहा है
bahut badhiya..
bahut hi gahrae ke kahin gae kuch line man ko drwit kar gae.......ek bhawpurn kavita keliye bahut shukariyan.
Very realistic and heart touching......... :) :)
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति
बेहतरीन प्रस्तुती....
वो तो लूट के ले गया सब कुछ उजाले में
हमे तो अँधेरे का भी जवाब देना पड़ता है ||
बहुत उम्दा.... शानदार रचना..
सादर...
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