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Thursday, June 17, 2010
ऐसा होता तो .....
आज सोचा मैंने.....
काश की बादल मेरे इशारे समझ पातें ... तो सोचो कितने मजे आते....
में उन्हें अपने हिसाब से चलाता ...न कहीं कम न कहीं ज्यादा बरसाता ॥
में प्यासी धरती की.... बंजर खेतों की प्यास बुझा देता ....
और कहीं बाढ़ न आने देता इस अमृत को यूँ व्यर्थ न जाने देता ॥
जब सूरज अपनी गर्मी से सब को जुल्साता
में आता और उसे अपने मैं छुपा लेता
ताकी उस गरीब मजदूर को दो पल चैन की नींद आती ....
उसे धरती की तपन नहीं सताती ॥
जब दो प्यार करने वाले रूठे होते ... उनके रिश्ते किसी मोड़ पे छूटे होते
में मौसम को इतना सुहाना कर देता.. उन दो दिलो को फिर से इक दूजे का दीवाना कर देता ॥
काश की बादल मेरें इशारे समझ पाते ...
तो किसानों के चेहरे यूँ न मुरझाते ...
में उनके खेतों में फिर से सोना बरसाता ..... ये देश फिर से ''सोने की चिड़िया'' कहलाता ॥
में किसी प्राणी को भूखे नहीं मरने देता ... किसी किसान को खुदखुशी न करने देता ॥
हे बादलों इस बार हमारे इशारे से चलों.... हमारे अरमानो को और न छलों ॥
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9 comments:
They spread and thinking behind the poem is so real....very good vijay
very well said vijay,
aap ki rachnaye hamesha vastvikata bayan karti hain..
very nice..
ऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती...इतनी भावपूर्ण कवितायें लिखने के लिए आप को बधाई...शब्द शब्द दिल में उतर गयी.
यहीं तो आकर इंसान विवश हो जाता है। सब पर उसका राज नहीं चलता। लगता है इसलिए उसने सबकुछ बिगा़ड़ने का मन बना रखा है। ग्लोबल वार्मिंग हकीकत बनकर अब सामने खड़ा है पर हम चेतेंगे नहीं। बादल चाह कर भी कई जगहों पर बरस नहीं पाते। कंक्रीट के जंगल में उसे उतरने में काफी कठिनाई होने लगी है अब।
veri good ...........
"बहुत आशावादी विचारों से युक्त कविता...."
wah kya baat hai.
nice
किसी प्राणी को भूखे नहीं मरने देता ... किसी किसान को खुदखुशी न करने देता ॥
हे बादलों इस बार हमारे इशारे से चलों.... हमारे अरमानो को और न छलों ॥
काश की ऐसा हों पता ........
आपकी लेखनी वैसे भी हमेशा से ही आशावादी रही हैं ....शुभकामनाएँ
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