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Saturday, January 28, 2012

काश..


काश कैची होती , वक्त को काट लेती
सिलबट्टे पर ग़मों को बाँट लेती
काश नजरें ना होती कमजोर मेरी
आसानी से खुशियों को छांट लेती |

भर लेती अच्छे दिनों को अचार के मर्तबान में
जला देती बुरे दिनों को दूर कहीं शमशान में |
जो मेरी गली में होता अक्सर फेरा तेरा
मैं तुझ से थोड़े सुख उधार मांग लेती ..|

बदलना ही तेरी फितरत थी , बता देता
मैं तुझको कलेंडर सा दिवार पर टांग लेती |
तू वादा करता मुझसे, मौत के परे मिलने का
मैं उसी समय जिन्दगी को उलांग लेती |

जो मेरी गली में होता अक्सर फेरा तेरा
मैं तुझ से थोड़े सुख उधार मांग लेती
काश कैची होती , वक्त को काट लेती
सिलबट्टे पर ग़मों को बाँट लेती ..||


4 comments:

Aditya said...

//सिलबट्टे पर ग़मों को बाँट लेती
//आसानी से खुशियों को छांट लेती |

bahut khoob sir.. bahut khoob.. mazaa aa gaya..


palchhin-aditya.blogspot.com

विभूति" said...

सुन्दर अभिव्यक्ति.

Unknown said...

बदलना ही तेरी फितरत थी , बता देता
मैं तुझको कलेंडर सा दिवार पर टांग लेती |

adbhut.... vakya

नीरज गोस्वामी said...

बदलना ही तेरी फितरत थी , बता देता
मैं तुझको कलेंडर सा दिवार पर टांग लेती

वाह...बेजोड़ रचना...बधाई

नीरज

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