Followers

Sunday, June 28, 2009

दहेज़

एक दिन एक गरीब बेटी का बाप, पहुँच गया एक सेठ के घर,
और कहने लगा, सुना है आपका बेटा किराये पर चढा है,
आपकी मुंह मांगी कीमत तो न चुका पाउगा,
पर वादा करता हु,
घर द्वार बेच कर जो होगा सो दे दूंगा,
दया करिए इस बेटी के बाप पर,
और हाँ कर दीजिये इतने ही माल पर,
दो साल के लिए ही सही,
एक गरीब की बेटी सुहागन तो कह लाएगी,
भले ही बाद में स्टोव से जला दी जायेगी,
फ़िर से चढा देना अपने बेटे को... और बढ़ा के दाम,
कोई न कोई बाप जरुर आएगा करने अपनी बेटी तुम्हारे नाम,
फ़िर वही कहानी दुहरायी जायेगी,
और दहेज़ का अभिशाप भुगतने के लिए बेटियाँ जलाई जायेगी॥

4 comments:

विजय पाटनी said...

accha hai but i think kaafi haalat badal chuke hai ab :)

EKTA said...

marvelous...
its just amazing....
it really appeals...

प्रकाश गोविंद said...

सामजिक व सामयिक कविता जो दिल को व्यथित करती है !
या खुदा ऐसा समय कब आएगा जब इस तरह की कविता लिखने लिखने की जरूरत न पड़े !
समाज के लिए एक नासूर है दहेज़ !

लिखते रहिये

स्नेह एवं आशीष

आज की आवाज

Laxmi said...

दहेज प्रथा को समाप्त करने के लिए एक सामाजिक आन्दोलन लें कि वे दहेज नहीं लेंगे और अपने मा-बाप को स्पष्ट बता दें कि वे दहेज ले कर उनकी शादी न करें। मैंने अपनी शादी में यह खुलासा कर दिया था कि मैं दहेज नहीं लूँगा।

Related Posts with Thumbnails