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Friday, March 9, 2012

दीवारें


जानते हो ?
तुमसे ज्यादा तो मुझे, इस घर की दीवारें जानती है ....
जब तुम सुनते नहीं मेरी , मैं सब इन को सुना देती हूँ
जब तुम फाइलों में उलझे,मुझे भूल जाते हो , मैं इनसे रिश्तें बना लेती हूँ |

तुम जानते हो ?
ये मुझे सहारा देती है ...
जब बातों के भंवर में होती हूँ मैं , ये मुझे किनारा देती है |
कभी जब थक जाती हूँ खुद से , ये मुझे फिर से जीने का इशारा देती है ...
मैं इन्हें अपनी सब परेशानियाँ सुना देती हूँ ...
जब तुम फाइलों में उलझे,मुझे भूल जाते हो , मैं इनसे रिश्तें बना लेती हूँ |

ये जो दीवार में बनी, ताकें है ..
इनमें मैंने अपने गम छुपा रखें है ,
कितने ही आसूं वाले दिन, इन में दबा रखें है |
ये दीवारें मेरी सखियाँ है , इनसे में भारी मन को बहला लेती हूँ
जब तुम फाइलों में उलझे,मुझे भूल जाते हो , मैं इनसे रिश्तें बना लेती हूँ |
देखा , ये दीवारें कितनी अपनी है ....

4 comments:

vandana gupta said...

सुन्दर भावाव्यक्ति।

रवि शंकर पाण्डेय said...

दीवारों की ताखों में दर्द को सजोना,आत्म अन्तर्विरोध को अभिव्यक्त करती आज की उपभोक्तावादी, वाजारवादी,अर्थव्यवस्था,जहाँ मानवीय संवेदना फाईलो में कैद है ।एक शशक्त कविता .........बधाई

Unknown said...

जानते हो ?
तुमसे ज्यादा तो मुझे, इस घर की दीवारें जानती है ....
जब तुम सुनते नहीं मेरी , मैं सब इन को सुना देती हूँ

हमेशा की तरह , बहुत सुंदर रचना

Yashwant R. B. Mathur said...

आज 25/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर (सुनीता शानू जी की प्रस्तुति में) लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

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