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Saturday, January 30, 2010

अपने पराये

हमने दूर से, करीब के रिश्तों को.. टूटते देखा है ,
अपनों को ...गैरो के लिए ...छुटते देखा है

अब तो अपनों की खुशियों से भी दूर रखा है खुद को
क्युकी अपनों से ही ...अपनों को... लुटते देखा है

तिजोरी में रखे चंद कागज़ के टुकडो के कारण,
हमने अपनों को ...बेवजह रुठते देखा है
अपने हो जाते है पराये चंद लकीरों से
हमने बचपन के सपनो को खुली आँखों से टूटते देखा है

दर्द है इतना दिल में, किसे दिखाए ये जख्म ?
अपनों को हमने आँखे मूंदते देखा है !!

तुम दूर रहे , और दिल से भी दूर हो गए
तुम्हारे इंतज़ार में अखियों को बार बार रूसते देखा है !
हमने दूर से करीब के रिश्तों को टूटते देखा है

7 comments:

Anonymous said...

बहुत ही बेहतरीन लिखा है आपने!

Alpana Verma said...

bahut achchha likhti hain shubham aap.
yah rachna bhi bahut hi ahchchee hai.

Shubham Jain said...

dhanywaad alpna ji aapko rachna pasand aayi lekin ye rachna meri likhi nahi hai...mere sathi vijay patni ji ne ise likha hai... :)

Rohit Singh said...

वाह क्या रचना है....बहुत ही खुबसुरत...

Anonymous said...

"हमने दूर से करीब के रिश्तों को टूटते देखा है"
छोटी लेकिन बहुत बड़ी बात - बहुत खूब

संजय भास्‍कर said...

....बहुत ही खुबसुरत...

anil gupta said...

bahut hi sandar rachana hai aap ki

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