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Saturday, October 23, 2010

वजूद ..


शायद हर स्त्री को इस दर्द से गुजरना पड़ता है हमारे पुरुष प्रधान माज में ...
उसे
लड़ना पड़ता है अपने 'अस्तित्व' के लिए जाने कोंन सी टिस इस मन को लगी है की पहली बार कोई रचना मेने पूरी रात जाग के लिखी है.... इस उम्मीद में की ये किसी एक के अंधियारे जीवन में उम्मीदों का सवेरा ला सके ....


मैं अपने वजूद को तलाश रही हूँ ...मैं बन के जिन्दा लाश रहीं हूँ ॥
माँ जो सुनाया करती थी बचपन में कहानी सुलाने को ॥
मैं अब भी वो परियों वाला बिछोना तलाश रही हूँ ...
मैं बन के जिन्दा लाश रहीं हूँ ॥

बाबुल ने बड़े अरमान से जिसे थमाया था मेरा हाथ की रानी बेटी राज करेगी...
मैं टूटे हुए कंधों पे उठाये उसका बोझ ...बनके एक हमाल रहीं हूँ ...
मैं बन के जिन्दा लाश रहीं हूँ॥

रोली की लाली में छपा मेरा पहला कदम तेरी और ...
धूल में धुल चुके उस निशाँ को ...मैं अब भी फ़र्श पे संभाल रहीं हूँ
मैं बन के जिन्दा लाश रहीं हूँ ॥

न जाने इस घर की दीवारे कांच की बनी है ...?
की मेरी आवाज़ टकरा के मुझ तक ही आ जाती है ॥
सुना है दीवारों के कान होते है ... मैं ऐसी दीवारों को तलाश रहीं हूँ
मैं बन के जिन्दा लाश रही हूँ ॥

इन सब को बनाने में मैंने अपना 'अस्तित्व' मिटा दिया
फिर भी मैं अपने काम से निराश रहीं हूँ ...
मैं बन के जिन्दा लाश रहीं हूँ॥

मेरी मुस्कराहट से वो मेरी ख़ुशी का अंदाजा लगाते है
कोई बताये उन्हें... मैं अन्दर से आसूं का सैलाब रहीं हूँ
मैं बन के जिन्दा लाश रहीं हूँ ॥

और अंत में ये चार लाइन तुझे फिर से जिन्दा करने के लिए ....
माना तू उदास है हताश है
मगर होसलों की उड़ान और सपनो में रंग भरना अभी बाकी है
तू किसी के लिए जिन्दा लाश ही सही लेकिन तेरा होना ही सब के जीने के लिए काफी है ॥
अपने "वजूद" का नवनिर्माण कर "विजय" - पथ तेरी राहों में होगा ॥
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