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Wednesday, September 22, 2010

जीवन एक्सप्रेस

 (पंडित अभिनव जी कृत)

रेल चली भाई रेल चली, दो पहियों की रेल चली 
अजब अनोखी रेल चली, रेल चली भाई रेल चली |

ये गाडी है बड़ी निराली बड़ी तेज़ रफ़्तार है,
नाम है जीवन एक्सप्रेस जिसमे दुनिया सवार है,
तरह तरह के डिब्बे इसमें आगे पीछे खड़े हुए,
सबका नाम देह और तन है एक दूजे से जुड़े हुए,
मौत के इंजन से, सांस के इंधन से, दौड़ रही है गली गली, 
रेल चली भाई रेल चली.......

सुख और दुःख की दो पटरी है जिन पर गाडी भाग रही,
एक सवारी नाम आत्मा एक डिब्बे से झांक रही,
पहला स्टेशन बचपन है बड़ा ही सुन्दर प्यारा,
खेल खिलोने जहाँ बिखरते अजब तरह का नज़ारा,
देख खेल खिलोने रे लगा मुशाफिर रोने रे,
इस रोने हँसने में गाडी धीरे से फिर सरक चली,
रेल चली भाई रेल चली............

अगला स्टेशन जो आया इसका नाम जवानी,
प्यास लगी पेसेंजर उतरा नीचे पीने पानी,
तभी एक और यात्री प्लेटफ़ॉर्म पर आया,
उसको भी डिब्बे में फिर इसने बिठलाया,
साथी में ये ऐसा खोया खेल खिलोने भूल गया,
इस जोड़े को लेकर गाडी तेज़ी से फिर निकल चली,
रेल चली भाई रेल चली.............

आगे को जरा और चली तो डिब्बे में एक शोर हुआ,
एक नन्हा सा और यात्री दोनों के संग और चढ़ा,
तभी तीसरे स्टेशन का सिग्नल इन्हें नजर आया,
नाम बुढ़ापा था जिसका कुछ उजड़ा उजड़ा सा पाया,
गति ट्रेन की मंद हुई खिड़कियाँ सारी बंद हुई,
असमंजस में पड़ा मुशाफिर गाडी फिर भी सरक चली,
रेल चली भाई रेल चली.............

आगे को जरा और चली तो एक बड़ा जंक्सन आया,
पहला यात्री बाहर को झाँका था श्मशान लिखा पाया,
पहला वाला यात्री बोला मुझको यही उतरना है,
ये वो स्टेशन है जहाँ से गाडी मुझे बदलना है,
साथी रोवे खड़े खड़े मिस्टर कौशिक उतर पड़े,
छोड़ के तन को निकली आत्मा दूजी गाडी बैठ चली,
रेल चली भाई रेल चली दो पहियों की रेल चली ||

( चित्र गूगल से साभार )

Sunday, September 19, 2010

रूह से रूह तलक....


अब कुछ ऐसा लिखे जो सब की रूह तलक पहुचें
राह जो पकड़ लें अब... वों मंजिल तलक पहुचें
कांटो पे चलते रहे ....गम नहीं कोई...
पर अब तो पैर के छाले मरहम तलक पहुचें
अब कुछ ऐसा लिखे जो सब की रूह तलक पहुचें
एक अदद ख़ुशी की तलाश में भटकता फिरा में दरबदर ...
अब तो मेरी आवाज़ उस के दर तलक पहुचें
जमीं पे रह के ख्वाब सजाये फलक के
उम्मीद के आवाज़ मेरी दूर तलक पहुचें
में तेरे होने के भ्रम में जिये जा रहा हूँ
कुछ ऐसा कर की अँधेरे में भी तेरी परछाही मुझ तलक पहुचें !!
दर्द में रिसती जिन्दगी पिघलने को बेताब
आंधियां उड़ा ले गयी बचे कुचे से ख्वाब
अब तो सुकून की आबो हवा इस तलक
पहुचें !!
कई सों बरस जीने की तमन्ना थी मेरी
लेकिन पचास भी बड़ी मुश्किल तलक पहुचें !!
है जिन्दगी में परेशानियाँ बहुत मुझे पता है ..
पर हर वो शख्स ख़ुशी से जिये मेरे शब्द जिस तलक
पहुचें !!
अब कुछ ऐसा लिखे जो सब की रूह तलक पहुचें......

Friday, September 17, 2010

Common wealth :- यारो इंडिया बुला लिया ..


कॉमन वेअल्थ -- आम आदमी के धन को देश की इज्जत के नाम पे उड़ाया जा रहा है
यारो इंडिया बुला लिया गाया जा रहा है !!
करोड़ों के काम में अरबों के घोटालें ॥ फिर भी कहते हों देश की इज्जत को संभालें ?
एक गाँव को बनाने में अरबों लगा दियें और हजारों गाँवों के करोड़ों लोगो को फटकारा जा रहा हैं
यारो इंडिया बुला लिया गया जा रहा है !!
यदि ये कॉमन वेअल्थ है तो पहले आम आदमी की हेल्थ सुधारो
फिर कहो विदेशी मेहमान पधारों
आँखे खुली है सब की इन सजावटों से किस को भरमाया जा रहा है?
यारो इंडिया बुला लिया गया जा रहा है !!

कहतें है ये तो खेल है दिलों का मेल है ...
सफेदपोशों के इस खेल ने निकाल दिया आम आदमी का तेल हैं...
अतिथि देवो भवः तो हमारे संस्कार है ... फिर क्यों इतना हो हल्ला मचाया जा रहा है ?
यारो इंडिया बुला लिया गाया जा रहा है !!
लाखों पड़े है भूखे - नंगे और करोड़ों के गाने बनाये जा रहे है
इस खेल में गरीबों के घर जले और अमीर अपने बंगले बनाये जा रहा है
यारो इंडिया बुला लिया गाया जा रहा है !!
सडक किनारे खड़े भिखारी सफ़ेद कारो में बैठे भिखारी की आँखों में खल रहें है
क्युकी इस खेल में रुपये से ज्यादा डॉलर मिल रहे है !!
हिन्दुस्तान की कब्र पे इंडिया को सजाया जा रहा है
यारो इंडिया बुला लिया गया जा रहा है !!

Saturday, September 4, 2010

शब्द गुम है


शब्दों से आज कल कुछ अनबन सी हो गयी है ...
मन में न जाने कितनी उलझन सी हो गयी है... ?
जो 'आह' निकलती थी दिल से शब्दों के रूप में
वो कहीं खो गयी है जिन्दगी की दोड़ - धुप में
शब्दों को तलाशा मैंने ...हरियाली में सूखे में ....
सुबह की पहली किरण में ....ढलती शाम की लाली में ...
खुशहाली में ....बदहाली में ...रहीसी में.... कंगाली में ... ॥
पतझड़ के पत्तों में ....पीपल की छाँव में ...
शहर की भागती जिन्दगी में और रुके थके गाँव में ॥
लेकिन शब्द मौन है और न जाने इसकी वजह कोंन है ?
मुझे 'वाह' नहीं चहिये 'आह' चाहिए
आँखों से बहते नीर को फिर से दवात में भर लो
हे शब्दों मुझ में फिर से अपना घर कर लो ...
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